Sunday, 2 April 2017

क्या चाहता हूं मैं

कुछ चाहता भी हूं और नही भी चाहता
चाहत की परिभाषा अपने अर्थ खो रही हैं
तुझे देखना भी चाहता हूं और नही भी
प्यार करना, मनुहार करना, चिढाना, सताना
सब के सब मेरी चाहत  मे शामिल हैं पर
बस अगले ही पल जमीं पे होता हूं मै
तू स्वप्न बन जाती है और नींद उचाट
ढूंढती मेरी नजरें बस शून्य देखती हैं
जैसे की तू छुपी है उस शुन्य मे कहीं
मै फिर से दुनिया की भीड़ मे होता हूं
तुझसे दूर, बहुत दूर, मीलों-मीलों दूर
तब कोई कोना ढूंढता हूं मै, जहां बेशक
तू ना हो पर तेरे होने का अहसास हो
उससे आगे मै छूना चाहता हूं तुझे
मै और भी बहुत कुछ चाहता हूं
चाहतों का सिलसिला सा होता है
लेकिन इनका कोई अंत नही होता
दर्द की कोई लहर झकझोरती है मुझे और
एक शायद शामिल होता है मेरे वजूद मे
उलझन की गणित और वो यक्ष-प्रश्न की
क्या चाहता हूं मै और क्या नही चाहता।
प्रकाश रंजन

No comments:

Post a Comment