Monday, 22 May 2017

लछमिनिया

बड़ा बाबू उसको घूर रहा था।। वह ऐसी नजरों की आदी नही थी पर समय का फेर। अब अंचरा ओढकर बच्चों का पेट कैसे भरेगा।  बेचारी बेवा, पति के रहते मुश्किल से ही कभी घर से निकली हो और अब ये नयी दुनिया।
बिशुनवा मर गया था और उसकी लछमिनिया अनुकंपा पर नौकरी चढ गयी बात बस इतनी सी तो थी।

माना कि तू बहाल हो गयी और रजिस्टर पर नाम लिख गया तुम्हारा। पर वेतन तो ये रजिस्टर देगा नही उसके लिए तो बड़ी जोर से लिखना पड़ेगा। कहकर बड़ाबाबू ने उसकी आंखों मे झांका। उसी शाम लछिया बड़ा बाबू के घर गयी तब जाकर कागज-पत्तर सब ठीक हो सका।

आफिस मे तो वो तब भी खेप गयी पर इ बड़का हाकिम का घर। उस पर ना बोले का लूर ना काज करे का। बेचारी घबड़ायी सी रहती।।  ड्राइवर, माली, रसोइया सभके मुंह मे एक्के बात साहब हैं तो बहुत कड़े पर मजाल है कि मेरी बात काट दें।  बेचारी कभी इसका मुंह जोहती कभी उसका।

दूइये साल तो बीता है पर मान गये लछिया को। एक-एक करके सबकी खोज-खबर ली उसने। बड़ा बाबू का तो बोरिये-बिस्तर बंधा गया।। निचला कर्मचारी सब तो उसके सामने भी नही पड़ता। जिधर से गुजर जाती है सब मुंह छुपाने लगते हैं। जिसको चाह ले इधर से उधर करवा दे।। पीठ पीछे लोग जो कह लें पर सामने मे लक्षमी जी से नीचे कोई नही बोलता।। छोटा-मोटा पदाधिकारी तो उसके मुंह भी नही लगता तू-तड़ाक कर देती है और करे भी क्यूं ना सीधे बड़े साहब के डायरेक्ट टच मे जो है।

बाकी दुनिया के लिए कुछ खास नही बदला है। बस बिशुनवा की लजकोटर लुगाई अब माथा उघाड़कर चलने लगी है।

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