Friday, 19 May 2017

चार बेटियां

उसकी चार बेटियां थीं और वह एक निरीह पिता था। उसके अब खुद के कोई सपने नही थे बस बेटियां थी। अब वह कोई मिस्टर, वर्मा, शर्मा या सिन्हा नही था बस चार बेटियों का पिता था।
कोई उससे उसकी बात अब पूछता भी नही बस बेटियों की चर्चा करता। जिम्मेदारी, शादी दान-दहेज जबकि बेटियां अभी छोटी ही थीं।
बेटियां थोड़ी बड़ी हुयी तो उसने अपने खिड़की-दरवाजों पर काले शीशे, पर्दे आदि लगवाए। लोगों की नजरों से बच बचाकर अब वह और उनकी बेटियां उनकी आड़ मे आराम से रहेंगी।
बेटियां थोड़ी और बड़ी हुयीं तो उसने उन्हे कालेज-ट्यूशन छोड़ना शुरू किया। बेटियों के साथ चलते वह नजरें उठाकर नही चलता। अब उसकी पीठ झुकती जा रही थी।
उसने मंदिरों मे उतने शीश नही नवाए जितना लड़के वालों के चौखटों पर झुकाए।। दोनो हाथों को जोड़े वह दीनता की प्रतिमूर्ति होता था। बेटियों के रिश्ते करते-करते अब वह एक भिखारी भी हो गया था।
तमाम अनुशासन, त्याग, सीख और सावधानी के बावजूद भी उसकी एक बेटी ने भाग कर शादी कर ली थी और उस दिन से वह बेहया-बेशर्म इंसान भी था।
बेटियों को घर से विदा करने के बाद उसने सोचा अब वह सर उठा कर चलेगा और चैन की नींद सोयेगा। थोड़ा हंसेगा-बोलेगा पर देखा कि दामाद जी आए थे अब उनकी देखभाल भी जरूरी ही थी कहीं कुछ ऊंच-नीच रह गया तो।
चार बेटियों के चक्कर मे उसके चारों धाम हो गये थे संपत्ति के नाम पर किराए का एक कमरा और टीन का एक बक्शा बच रहा था। जिन्दगी भर किसी ने नाम नही लिया पर बुढापे मे लोग कहते कोई वारिस नही, कोई नाम लेने वाला नही बचेगा।
आज श्मशान मे बेटियों के झंझट से वह मुक्त था पर तब भी लोग कह रहे थे, नर्क ही जाएगा निपुत्तर ही मर गया।।।

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