यूं ही चलते हुए इक जमाना हुआ
कुछ फंसाने बने यूं ही चलते हुए
हर कहानी कभी जिन्दगानी बनी
फिर अजनबी बने यूं ही चलते हुए।
कुछ फंसाने बने यूं ही चलते हुए
हर कहानी कभी जिन्दगानी बनी
फिर अजनबी बने यूं ही चलते हुए।
यूं ही चलते हुए इक हंसी शाम को
उनकी नज़रें इनायत से महरूम थे
पूछा जाना मेरी इक खता बोल दो
वो बस खामोश थे यूं ही चलते हुए।
उनकी नज़रें इनायत से महरूम थे
पूछा जाना मेरी इक खता बोल दो
वो बस खामोश थे यूं ही चलते हुए।
मेरी खातिर लटों को झटकते थे जो
कि दिलो-जान मुझपे छिड़कते थे जो
जब किनारा किया मुड़के देखा नहीं
फिर वो गुम हो गये यूं ही चलते हुए।
कि दिलो-जान मुझपे छिड़कते थे जो
जब किनारा किया मुड़के देखा नहीं
फिर वो गुम हो गये यूं ही चलते हुए।
बनके दिपक मेरे दिल मे जलते रहे
दंभ रस्म-ए-मुहब्बत के भरते रहे
वो हंसी ख्वाब थे या थे नूर-ए-नजर
कब समां ढल गयी यूं ही चलते हुए।
दंभ रस्म-ए-मुहब्बत के भरते रहे
वो हंसी ख्वाब थे या थे नूर-ए-नजर
कब समां ढल गयी यूं ही चलते हुए।
यूं ही चलते हुए मुझसे पूछा किए
मेरे बिन भी हंसोगे क्या साजन मेरे
हम तो रो रो के जीवन से बेजार थे
वो मुस्कुरा भर दिए यूं ही चलते हुए।।
मेरे बिन भी हंसोगे क्या साजन मेरे
हम तो रो रो के जीवन से बेजार थे
वो मुस्कुरा भर दिए यूं ही चलते हुए।।
- प्रकाश रंजन 'शैल', पटना।
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