भिजिलेंस का छापा पड़ा था। छोटे अधिकरी दौड़-दौड़ कर कीमती सामान बटोरते थे।
सोना, जेवर, नगदी घर मे कीमती चीजों की कमी ना थी। कम से कम पांच-सात करोड़ से कम का माल न था। भिजिलेंस अफसर भी अवाक था, इतने मालो-असबाब की उसे आशा न थी। अपने कामधेनु विभाग से बमुश्किल एक-सवा करोड़ निकाल पाया था वो दस सालों मे, पर यहां तो!
इधर सिन्हा जी मौन थे, शांति की मुर्ति बने सोफे मे धंसे हुए। अचानक आये विपदा से मन ही मन निकलने का उपाय करते थे। कौन नही लेता घूस, और कौन सा किसी गरीब को सताया है, स्वेच्छा से दिया सो लिया। शासन मे पैठ थी, कोई रास्ता निकाल ही लेंगे ऐसा विश्वास था। साथी संगत मे रूआब ही बढेगा, छुपा रूस्तम निकला, शक्ल से इतना तेज दिखता नही, रईस लोगों मे गिनती होने लगेगी वो अलग।
सबकुछ यंत्रवत था। तभी जैसे बम फूटा हो, तीन बोतलों की शक्ल मे दारू देवी प्रकट हुयी थीं। अंग्रेजी, विलायती। भिजिलेंस अफसर की बांछें खिल गयी बकरा अब हलाल होगा अच्छे से। जिस अधिकारी ने बोतलों को निकाला था, उन्हें ऐसे थाम रखा था जैसे परमवीर चक्र थामे हो। लोगों का ध्यान अब बस उन तीन बोतलों पर था। तुच्छ गहने जेवरों के मध्य अब दारू देवी विराज रही थीं पूरे शानो-शौकत के साथ।
माहौल यकायक मातमी बन गया था, सिन्हा जी सर पकड़े थे, सिन्हाइन छाती पीट-पीट कर रो रही थी। सब के के चेहरे पर हवाइयाँ! काटो तो खून नही! अब कुछ नही हो सकता, लंबी लगने वाली है। जेल-जमानत अभी से दिखाई देने लगे थे। जम कर कोसा उस मनहूस घड़ी को जब इस मरदूद विभाग मे पोस्टिंग हुयी थी। बड़ा हाय-हाय करते थे, अब? आंखों के आगे अंधेरा छा गया था उनके।
अब तो बस भगवान का ही सहारा है।
प्रकाश रंजन