मैने उसे तब भी देखा था
जब नन्ही सी थी वो
बड़ी चोटी, स्कर्ट कमीज
सधे कदम सीधी राह
सहमी सहमी सी चाल॥
कालेज को जाते भी
अन्तर बस इतना सा की
स्कर्ट कमीज की जगह
सलवार कुर्ती ने ले ली
बाल अब कभी-कभी
खुले भी दिख जाते ।
पर दिखती तब भी वो
सहमी-सहमी ही सदा
कभी सड़क बाजार मे
दिखे तो सहमा सा चेहरा
हंसे भी अगर कभी तो
सहमी सी हंसी गोया।
पर्याय हो एक-दूसरे का
अगर है वो, सहमी सी होगी
अगर कोई जा रहा है
सहमा सहमा अपने राह
तो वो भी हो सकती है।
इक रात सहमी सी ही
उसे दुल्हन बनते देखा
और अहले सुबह सहमे हुए
बाबुल की देहरी छोड़ते
मैने बाद मे भी जब कभी
याद किया उसे तो, उसका
सहमा सा चेहरा सामने था।
आज अचानक से उसे देखा
औटोवाले को तहजीब सिखाते
मै तो बस नजरें बचा कर
निकल जाना चाहता था
पर पीछे से उसने ही
पुकारा था मेरा नाम ।
एक सांस मे कितनो सवाल
दिखे नही, कहाँ रहे
शादी-बच्चे, बेबाक-निर्भीक
मै तो ठगा सा बस
देखता भर रह गया
ये वो नही हो सकती
सहमी-सहमी सी लड़की।
फिर मुड़ी वो, बिटिया है
देखा, उसी का चेहरा था
सहमी सी इक लड़की
दोनो हाथ जोड़े हुए।
एक नयी पीढी,
आन्खों मे हया, चेहरे पर
भारतीयता की अमिट छाप
हमारी सम्रिद्ध संस्कृति मे
बंधी सहमी-सहमी सी।
प्रकाश रंजन
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