सरला का सर दर्द से फटा जा रहा था। कालेज जाने के नाम से ही उसकी आत्मा कांप जाती थी। सरला पढाई से भागती न थी पर इस नए आए झंझट ने उसके पढने के उत्साह को कम जरूर कर दिया था। अब वो पापा की नन्ही गुड़िया ना रही थी और देखने एवं घूरने के फर्क को समझने लगी थी। कालेज का प्रथम वर्ष कितने मजे मे बीत गया था पर अब जाकर ये संकट। महिला कालेज के अन्दर उस जैसी कितनी ही लड़कियां कितना सुरक्षित महसूस करती हैं खुद को और कालेज परिसर उनके खिलखिलाहट से गूंजा करता है पर उसके लिए सबकुछ बदल चुका था। कालेज छोड़ने की सामर्थ्य ना थी उसकी, पापा से क्या कहेगी और क्या कहे किसी से, जब नसीब ही फूटा था। सोच-सोच कर खुद को बीमार कर लिया था उसने। अंत मे उसने आज कालेज ना जाने का निर्णय लिया, माँ से कह देगी सर मे दर्द है।
समरबाबू आजकल बड़े उत्साह मे होते थे। सफेद हो गये बालों को छुपाने का प्रयास बढ गया था। पीछे दिखते चांद को ढकने के लिए अंग्रेजी टोपी के प्रयोग का विचार था। साइकिल से कालेज जाना व्यक्तित्व घटाता है रिक्शे का प्रयोग करेंगे। व्यर्थ मे दस रुपए रोज का खर्च होगा, पर व्यर्थ मे कहां, सोच कर चेहरे पर मुस्कान खिल गयी उनके। एक हैंडबैग लेना होगा, फूलवती झोला टांग देती है साइकिल पर, फिर सब्जी कैसे लाएंगे। उनके जीवन की भी उलझनें थीं। बड़ा लड़का नौवीं मे था पीटी शू के लिए जिद ठाने था, छोटे का स्कूल बैग फट चुका था लेना ही पड़ेगा, छोटकी को साइकिल रिक्शा चाहिए सब अगले माह के बजट मे जाएगा।अर्थाभाव मे जीते थे पर उस रमणी ने चित्त पर कब्जा कर रखा था। घंटे भर तो तैयार होने मे लगाते थे,उस षोडशी ने जीवन मे हलचल मचा दी थी। सब कुछ कितना खुशगवार सा था। सामन्यतया, क्लासेज लेने से कतराते पर द्वितीय वर्ष के उस क्लास मे जाने समय उनके कदमों की तेजी बढ-बढ जाती थी। ये आम नयनसुख जैसा न था, उससे कुछ बड़ा सा था। आज शायद आयी नही, उनकी उदास नजरें उसे ही ढूंढ रही थी।
नीना का मन खिन्न था, उसकी पक्की सहेली आज नही आयी थी। उसको पता था सरला ऐसा ही करेगी, गर्विनी जो है वो। करमजला ताक कैसे रहा है, कीड़े पड़े इस नासपीटे मास्टर को,उसके चेहरे पर वित्रिष्णा आ गयी थी।
प्रकाश रंजन
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