चिता की आग -
चिता की आग
बस ठन्ढी होने को थी
सब जा चुके थे
आये थे तभी तुम
आंसू भी बहाया था
गिरी थी कुछ बुन्दे
ठन्ढे हो रहे राखों पर
उष्णता के आभास से
भदभदाये थे अवशेष
फिर शांति थी वहाँ ।
मै भी तो था वहीं
अपलक देखता तुझे
जैसे तुझे देखने को
अभ्यस्त थी ये आंखें
डबडबाई नजरों से
कुछ बुदबुदायी थी तुम
और तुम्हे यूं उदास देख
शर्मसार थी मौत मेरी
शर्मसार रहा जीवन जैसे
खोने के बाद तुझे।
प्रकाश रंजन
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