Thursday, 1 August 2019

कभी तुम रब बनाते हो

कभी तुम रब बनाते हो
कभी दिल मे छुपाते हो
कभी अपना बताते हो
कभी सब भूल जाते हो।।
कभी कहते हो मुझ सा
दूसरा न है कोई जग मे
कभी काफिर बताते हो
कभी इल्जाम गढते हो।।
तेरे हर इक फसाने पर
पड़ेंगे गांठ रिश्तों मे
मेरी जाना ये जीवन है
इसे तुम खेल कहते हो।।
कहां कहते हैं तुमको हम
बिठा लो अपने पलकों पर
गिराओ गर अगर हमको
न टूटें हम करम कह दो।।
कि मै हूं मीत या वैरी
यह इक बार तय कर लो
हमारी इल्तिजा सुन लो
न बदलोगे ये तुम कह दो।।
मै इनसां हूं या हूं शैतान
न मुझको हो भ्रम कोई
कि मैने कब कहा तुमसे
मुझे भगवान तुम कह दो।।
कि मै मै ही बना रह लूं
इनायत हो फक़त इतनी
सितम जो ढा रहे हो तुम
इसे अब आखिरी कह दो।

तुम्हारे होने के हर पल को

तुम्हारे होने के हर पल को
मै मुट्ठी भर जी लेता हूं
कि तुम जब नही होगे
मेरी बंद मुट्ठी से निकलकर
अचानक खड़े हो जाओगे
मेरे सामने प्रत्यक्ष, सशरीर
पर इस डर से कि कहीं
फिर से ना खो जाओ तुम
मै भींचे रहता हूं अपनी मुट्ठियां
जैसे तुम्हारा प्रत्यक्ष होना
उतना भी जरूरी नही जितना
कि ये विश्वास है कि तुम हो
मेरी हो और हां यहीं तो हो।