Tuesday, 4 April 2017

पटी थी क्या

सालों पहले जो हम किए थे तुमसे दिल की बात
और तुम अपनी बात पेटवे मे रख लिए थे!

ना मुस्कुराए ना खिसियाए ना ही चीखे- चिल्लाए।
कुछ हुआ ही नही ऐसा ही तुम दिखलाए!!

अब तुम अच्छे थे कि रंजूआ जो हुज्जत जो की
आ भरे बजार सैंडलवे से कूट भी दी!

टूट गया था मेरा दिल बिचारा बेजार रोया था
सैंडल की खट पट से कितनो दिन न सोया था!!

मर बात इ बुझा गया था किलियर सोलहो आना
कि अब तो रंजूआ के साए से भी बच कर है रहना!

मर इ केस मे तो आज भी कशमकस मे हूं कि
उस दिन पटे थे तुम कि पिटने से बचा था मै!!
प्रकाश रंजन

नयनसुख

सरला का सर दर्द से फटा जा रहा था। कालेज जाने के नाम से ही उसकी आत्मा कांप जाती थी। सरला पढाई से भागती न थी पर इस नए आए झंझट ने उसके पढने के उत्साह को कम जरूर कर दिया था। अब वो पापा की नन्ही गुड़िया ना रही थी और देखने एवं घूरने के फर्क को समझने लगी थी। कालेज का प्रथम वर्ष कितने मजे मे बीत गया था पर अब जाकर ये संकट। महिला कालेज के अन्दर उस जैसी कितनी ही लड़कियां कितना सुरक्षित महसूस करती हैं खुद को और कालेज परिसर उनके खिलखिलाहट से गूंजा करता है पर उसके लिए सबकुछ बदल चुका था। कालेज छोड़ने की सामर्थ्य ना थी उसकी, पापा से क्या कहेगी और क्या कहे किसी से, जब नसीब ही फूटा था। सोच-सोच कर खुद को बीमार कर लिया था उसने। अंत मे उसने आज कालेज ना जाने का निर्णय लिया, माँ से कह देगी सर मे दर्द है।

समरबाबू आजकल बड़े उत्साह मे होते थे। सफेद हो गये बालों को छुपाने का प्रयास बढ गया था। पीछे दिखते चांद को ढकने के लिए अंग्रेजी टोपी के प्रयोग का विचार था। साइकिल से कालेज जाना व्यक्तित्व घटाता है रिक्शे का प्रयोग करेंगे। व्यर्थ मे दस रुपए रोज का खर्च होगा, पर व्यर्थ मे कहां, सोच कर चेहरे पर मुस्कान खिल गयी उनके। एक हैंडबैग लेना होगा, फूलवती झोला टांग देती है साइकिल पर, फिर सब्जी कैसे लाएंगे। उनके जीवन की भी उलझनें थीं। बड़ा लड़का नौवीं मे था पीटी शू के लिए जिद ठाने था, छोटे का स्कूल बैग फट चुका था लेना ही पड़ेगा, छोटकी को साइकिल रिक्शा चाहिए सब अगले माह के बजट मे जाएगा।अर्थाभाव मे जीते थे पर उस रमणी ने चित्त पर कब्जा कर रखा था। घंटे भर तो तैयार होने मे लगाते थे,उस षोडशी ने जीवन मे हलचल मचा दी थी। सब कुछ कितना खुशगवार सा था। सामन्यतया, क्लासेज लेने से कतराते पर द्वितीय वर्ष के उस क्लास मे जाने समय उनके कदमों की तेजी बढ-बढ जाती थी। ये आम नयनसुख जैसा न था, उससे कुछ बड़ा सा था। आज शायद आयी नही, उनकी उदास नजरें उसे ही ढूंढ रही थी।

नीना का मन खिन्न था, उसकी पक्की सहेली आज नही आयी थी। उसको पता था सरला ऐसा ही करेगी, गर्विनी जो है वो। करमजला ताक कैसे रहा है, कीड़े पड़े इस नासपीटे मास्टर को,उसके चेहरे पर वित्रिष्णा आ गयी थी।
प्रकाश रंजन

भिजिलेंस का छापा

भिजिलेंस का छापा पड़ा था। छोटे अधिकरी दौड़-दौड़ कर कीमती सामान बटोरते थे। 

सोना, जेवर, नगदी घर मे कीमती चीजों की कमी ना थी। कम से कम पांच-सात करोड़ से कम का माल न था। भिजिलेंस अफसर भी अवाक था, इतने मालो-असबाब की उसे आशा न थी। अपने कामधेनु विभाग से बमुश्किल एक-सवा करोड़ निकाल पाया था वो दस सालों मे, पर यहां तो! 

इधर सिन्हा जी मौन थे, शांति की मुर्ति बने सोफे मे धंसे हुए। अचानक आये विपदा से मन ही मन निकलने का उपाय करते थे। कौन नही लेता घूस, और कौन सा किसी गरीब को सताया है, स्वेच्छा से दिया सो लिया। शासन मे पैठ थी, कोई रास्ता निकाल ही लेंगे ऐसा विश्वास था। साथी संगत मे रूआब ही बढेगा, छुपा रूस्तम निकला, शक्ल से इतना तेज दिखता नही, रईस लोगों मे गिनती होने लगेगी वो अलग। 

सबकुछ यंत्रवत था। तभी जैसे बम फूटा हो, तीन बोतलों की शक्ल मे दारू देवी प्रकट हुयी थीं। अंग्रेजी, विलायती। भिजिलेंस अफसर की बांछें खिल गयी बकरा अब हलाल होगा अच्छे से। जिस अधिकारी ने बोतलों को निकाला था, उन्हें ऐसे थाम रखा था जैसे परमवीर चक्र थामे हो। लोगों का ध्यान अब बस उन तीन बोतलों पर था। तुच्छ गहने जेवरों के मध्य अब दारू देवी विराज रही थीं पूरे शानो-शौकत के साथ।

माहौल यकायक मातमी बन गया  था, सिन्हा जी सर पकड़े थे, सिन्हाइन छाती पीट-पीट कर रो रही थी। सब के के चेहरे पर हवाइयाँ! काटो तो खून नही! अब कुछ नही हो सकता, लंबी लगने वाली है। जेल-जमानत अभी से दिखाई देने लगे थे। जम कर कोसा उस मनहूस घड़ी को जब इस मरदूद विभाग मे पोस्टिंग हुयी थी। बड़ा हाय-हाय करते थे, अब? आंखों के आगे अंधेरा छा गया था उनके। 

अब तो बस भगवान का ही सहारा है।
प्रकाश रंजन

Monday, 3 April 2017

###कानून####


बचवा पकड़ा गया था और पुलिस वालों ने उसे जम कर सोटा था। कल किसी बाबू ने रपट करायी थी कि उनके हजार-बारह सौ रूपये तथा फोन एक रिक्शे पर छूट गये थे और बताये गये हुलिये पे बचवा उर्फ बच्चा मान्झी फिट बैठा था ।इतनी सी बात और पुलिसवाले उसे उठा ले गये थे फिर तो खम्भे से बान्ध कर उसे लात जूतों पर रखा था पुलिसियों ने।

तीन दिन से हाजत मे था बचवा पता नही कब कोरट मे पेशी करें। मार का इतना गम नही था पर बीमार बच्ची की चिन्ता उसे खाये जा रही थी। हिम्मत करके पुलिसिये से घिघियाआ था बाबू, थानेदार बाबू से भेंट .... और पसलियों मे एक घूंसा पड़ा था उसके, साहब से बात करेगा स्साला। खम्भे मे बन्धे हुए ही वह दर्द से दोहरा हो गया।
इतना अपनी अज्ञानता मे भी जानता था वह की साल सवा साल अब उसकी कोई नही सुनेगा। पता नही बीमार बच्ची तब तक बचेगी भी या नही ।। वैसे भी कौन बाहर रहकर उसका इलाज करवा पा रहा था वह। आंखों मे बेबसी के आंसू, अब तो भगवान ही मालिक है।
इधर भगवान उर्फ भगवान राय मंडराने लगे थे बचवा के घर के बाहर। घर मे बीमार बच्ची है और बचवा की जवान लुगाई, अकेली और मजबूर। कुछ फर्ज तो साहूकार होने के नाते उनका भी बनता ही है धरम करम कमाने का।
 पूरे डेढ साल बाद बचवा छूटा है जेल से। कुछ अपने अायु और कुछ भगवान राय के धर्म कर्म से बचवा की बिटिया अब निरोग और अच्छी हो गयी है। बाकी बहुत कुछ नही बदला बस बचवा की लजकोटर लुगाई अब माथा उघाड़ कर बाहर निकलने लगी है।
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आज थाने मे ज्यादा ही कोलाहल है। थानेदार क्या पुलिस कप्तान खुद हाथ बांधे खड़ा है। बच्चा राय पुलिस के हत्थे चढा कम-से-कम अखबारों मे ऐसी ही खबर आयी थी। बच्चा राय पर हत्या, रेप और लूटपाट के राज्यभर मे पचीसियो मामले लंबित थे। एक बीडीओ को तो उसने पूरी भीड के सामने काट डाला था। पुलिस उसकी खोज मे वर्षों से थी मगर वह हाथ कहाँ आता था।
अदना सिपाही से लेकर एस.पी़. तक सब बच्चा बाबू की नजरों मे चढने के चक्कर में जी हुजुरी मे लगा है। कल से ही बच्चा बाबू के सरेंडर की जानकारी थी और थाने को उनके आवभगत के लिये तैयार कर के रखा गया था। सुना है राजधानी से फोन गया था कि बच्चा बाबू को थाने मे किसी तरह का कोई कष्ट न पहुंचे। उनके लाव-लश्कर के लिये कुर्सीयों की व्यवस्था, चाय पान आदि मे थानेदार ऐसे अपसियांत था जैसे बेटी की बारात दुआरे पर हो, नौकरी का मसला। एस.पी. के होठों पर सर सर की रट लगी हुयी थी। मीडिया के लोगों का हुजूम था और बच्चा बाबू के संबोधन का इंतजार।
बच्चा बाबू ने एस पी साहब को इशारा किया मीडिया को बुलाइये। प्रेस कांफ्रेंस शुरू हुआ। "मुझ पर लगे आरोप राजनीति से प्रेरित हैं, मुझे भारत की न्याय व्यस्था पर पूरा भरोसा है और मै पाक साफ होकर निकलूंगा। सत्ताधारी दल ने मुझे इस क्षेत्र से टिकट देने का वायदा किया है जिससे मै जनता की सेवा कर सकूं, आदि।"
बच्चा राय सात दिनों के भीतर जेल से रिहा हो जायेंगे तथा अमुक पार्टी के उम्मीदवार होंगे इसकी प्लाटिंग पहले से तैयार है और कोर्ट, थाने सब को अपनी भूमिका अच्छे से पता है।
प्रकाश रंजन

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न्यायाधीश

न्यायाधीश महोदय घर से निकले ही थे कि न्यायधीशाइन ने टोक दिया "आते वक्त एक किलो आलू, परवल, भिन्डी, जीरा, हल्दी और हरी मिर्ची पाव भर"। बिचारे कोर्ट का हिसाब-किताब भूल गये याद मे खाली आलू आ धनिया। न्याय कुछ एने- ओने हो गया, कोई नही पूछेगा सिस्टम ही ऐसा है ऊपर कोर्ट मे अपील होगा लेकिन हरी मिर्ची की जगह लाल मिर्ची आ गयी तो खैर नही।

तो बिचारे, अनमने ही न्याय कक्ष मे जाकर बैठे। मन-ही-मन दुराते रहे आलू एक किलो, परवल.....! 

केस पुकार हुआ, वकील अग्रेजी पढने लगा इ फिर लग गये जीरा मरीच ना ना हल्दी। हां तो हुजूर, यही केस है। 

हुजूर गहन चिन्तन मे थे। जनता समझ रही थी पंच परमेश्वर। बिचारे नून तेल मे रमे हुए थे। वकील साहब ने धीमे से पुकारा हुजूर बेल या जेल। हड़बड़ाहट मे निकल गया बेल। वकील ने अभिवादन किया जनता कानाफूसी करने लगी, जिह्वा पर साक्षात् `सरस्वती। मर्डर एकुज्ड को बेल, दूध का दूध, पानी का पानी। 

इधर जज साहब फिर हिसाब मे व्यस्त बैगन, ना बैगन नही बोली थी परवल कही थी।। अगला केस एक धनाढ्य का था जज साहब को इसमे कुछ उम्मीद थी पर किसी ने एप्रोच नही किया था अब तक, पेशकार से कहा आगे बढा दीजिए। 

फूलवती थोड़ी मिजाज की कड़ी है बोलने मे हिसाब नही करती। उसके झिड़कने के भय से साहब घबराये से रहते थे। 

अगला केस चोरी का था महज कुछ सौ रुपये चोरी और जेल मे दो साल से बंद, कुछ ले दे सकने की हालत मे नही, साहब जानते थे कहा अभी रहने दीजिये और आज बंद कीजिए कुछ इम्पोर्टैन्ट मसले देखने हैं। कोर्ट टूट गया आ न्यायाधीश महोदय फिर से दुहराने लगे आलू एक किलो ..... विचारमग्न।

"पता नही क्या पढ कर जज बन गये आलू प्याज का हिसाब रहता नही न्याय खाक करते होंगे।" फूलवती चालू थी कहा था पीसा हुआ हल्दी आ गोटा उठा लाये। बैगन किसने कहा था और सब्जी कैसा बासी उठा लाये पता नही ध्यान कहां रहता है।

न्यायाधीश महोदय प्रतिरोध नही कर सकते थे फिर उनका न्याय कौन करेगा। उन्होने विचार लिया था अगली बार कोई गलती नही होगी, चुटका बना लिया करेंगे जैसा कि परीक्षा के दिनों मे बनाते थे।
प्रकाश रंजन

जब दूर होते हो

जब दूर होते हो तुम
सितारों मे भी तुम्हें जान
बहलाता हूं खुद को
दिल मे बसे हो या आंखों मे कह
छलता हूं खुद को, तुम्हे नही।
पर तुम होते कहीं नही
हो सकती बस छवि तेरी।
सजीव सी पर निर्जीव ही।
पास मे भी तुम साथ कहां होते
अपनी जिम्मेदारियों या फिर
दुनिया भर के रिश्ते निभाते
ढूंढती मेरी नजर फिर तेरी
छवि मे ही तुझे तलाशती है।
जैसे प्रारब्ध हो जीवन का
तेरी छवि मे खुद को ढूंढना
और जीना इस विश्वास के
संग की तू मेरी है बस मेरी
प्रकाश रंजन

Sunday, 2 April 2017

श्रीमति

मोबाइल पर हर इक आहट से
चौंकता हूं, अबकी पक्का वही होगी॥
अलार्म बन कर मुझे उठानेवाली
साथ न होकर भी (मायके मे है)
अपनी मौजूदगी दर्शाने वाली॥
मेरे दवा-दारू (दारू का ज्यादा) का
मुझसे ज्यादा हिसाब रखने वाली॥
दहशतजदा होता हूं दूर रहकर भी
क्या करता हूं, किसके साथ होता हूं,
कितने बजे नींद खुली कब मै सोता हूं॥
सब खबर है उनके पास जैसे उन्होने
सीसीटीवी लगवा रखा हो मुझमे ही
या फिर हैं वो काले जादू की मालकिन॥
अब आज कहीं गुम हैं तो लगता है कि
जैसे मुर्गे ने बांग ही नही दी होगी उधर या
सूरज सुबह करना ही भूल गया हो कहीं॥
प्रकाश रंजन

पतिदेव का सन्डे

सन्डे का करती हैं
वो भी इन्तजार
श्रीमती जी हमारी
सप्ताह भर का कोटा
वो रखती हैं तैयार
राशनपानी,सब्जीभाजी
बिजलीबत्ती,अगड़मबगड़म
लगता मार्केट का
चक्कर बारम्बार
बीबी की दहशतगर्दी
फरमाइशें बच्चों की
कम कहाँ थी की
महरी भी अब
दिमाग चलाती है
छुट्टी की अर्जी वो
इसी दिन लगाती है
उसके भी काम मैडम
मुझी से करवाती हैं
बेचारे बाबुओं का
कौन बान्टे दर्द
शनिवार की शाम से
ही डर जाता है मर्द
काश दफ्तर मे
ना होता कोई औफ
सन्डे के नाम से
हो जाता है खौफ
अपील आप सभी से
एक संघ बनाइये
सन्डे के उत्पीड़न से
पतियों को बचाइये
मदद करने को
सरकार भी आगे आए
सन्डे को भी सारे
आफिस दफ्तर खुलवाये
प्रकाश रंजन

चिता की आग

चिता की आग -
चिता की आग
बस ठन्ढी होने को थी
सब जा चुके थे
आये थे तभी तुम
आंसू भी बहाया था
गिरी थी कुछ बुन्दे
ठन्ढे हो रहे राखों पर
उष्णता के आभास से
भदभदाये थे अवशेष
फिर शांति थी वहाँ ।
मै भी तो था वहीं
अपलक देखता तुझे
जैसे तुझे देखने को
अभ्यस्त थी ये आंखें
डबडबाई नजरों से
कुछ बुदबुदायी थी तुम
और तुम्हे यूं उदास देख
शर्मसार थी मौत मेरी
शर्मसार रहा जीवन जैसे
खोने के बाद तुझे।
प्रकाश रंजन

कब्रिस्तान

मैने ढूंढा था तुम्हे, उन रस्तों पर
जिनसे तुम आती जाती थी।
उन पर भी जहां तुम्हारे
होने की ना थी कोई आश।
पर नन्हे परों से नही लांघ सका
मै अंतहीन आसमान को।
थकता गया दुनिया की भीड़ मे
खुद को ही खोता चला गया मै।
आज नींद खुली भी तो क्या जब
ले के जा रहे लोग मुझे उस तरफ।
मैदान मे जिधर लगे हुए हैं अनेको पत्थर
और कुछ नाम जिन पर है लिखे हुए।।
प्रकाश रंजन

क्या चाहता हूं मैं

कुछ चाहता भी हूं और नही भी चाहता
चाहत की परिभाषा अपने अर्थ खो रही हैं
तुझे देखना भी चाहता हूं और नही भी
प्यार करना, मनुहार करना, चिढाना, सताना
सब के सब मेरी चाहत  मे शामिल हैं पर
बस अगले ही पल जमीं पे होता हूं मै
तू स्वप्न बन जाती है और नींद उचाट
ढूंढती मेरी नजरें बस शून्य देखती हैं
जैसे की तू छुपी है उस शुन्य मे कहीं
मै फिर से दुनिया की भीड़ मे होता हूं
तुझसे दूर, बहुत दूर, मीलों-मीलों दूर
तब कोई कोना ढूंढता हूं मै, जहां बेशक
तू ना हो पर तेरे होने का अहसास हो
उससे आगे मै छूना चाहता हूं तुझे
मै और भी बहुत कुछ चाहता हूं
चाहतों का सिलसिला सा होता है
लेकिन इनका कोई अंत नही होता
दर्द की कोई लहर झकझोरती है मुझे और
एक शायद शामिल होता है मेरे वजूद मे
उलझन की गणित और वो यक्ष-प्रश्न की
क्या चाहता हूं मै और क्या नही चाहता।
प्रकाश रंजन

भारतीय संस्कृति और महिलाएं

मैने उसे तब भी देखा था
जब नन्ही सी थी वो
बड़ी चोटी, स्कर्ट कमीज
सधे कदम सीधी राह
सहमी सहमी सी चाल॥

कालेज को जाते भी
अन्तर बस इतना सा की
स्कर्ट कमीज की जगह
सलवार कुर्ती ने ले ली
बाल अब कभी-कभी
खुले भी दिख जाते ।

पर दिखती तब भी वो
सहमी-सहमी ही सदा
कभी सड़क बाजार मे
दिखे तो सहमा सा चेहरा
हंसे भी अगर कभी तो
सहमी सी हंसी गोया।

पर्याय हो एक-दूसरे का
अगर है वो, सहमी सी होगी
अगर कोई जा रहा है
सहमा सहमा अपने राह
तो वो भी हो सकती है।

इक रात सहमी सी ही
उसे दुल्हन बनते देखा
और अहले सुबह सहमे हुए
बाबुल की देहरी छोड़ते
मैने बाद मे भी जब कभी
याद किया उसे तो, उसका
सहमा सा चेहरा सामने था।

आज अचानक से उसे देखा
औटोवाले को तहजीब सिखाते
मै तो बस नजरें बचा कर
निकल जाना चाहता था
पर पीछे से उसने ही
पुकारा था मेरा नाम ।

एक सांस मे कितनो सवाल
दिखे नही, कहाँ रहे
शादी-बच्चे, बेबाक-निर्भीक
मै तो ठगा सा बस
देखता भर रह गया
ये वो नही हो सकती
सहमी-सहमी सी लड़की।

फिर मुड़ी वो, बिटिया है
देखा, उसी का चेहरा था
सहमी सी इक लड़की
दोनो हाथ जोड़े हुए।

एक नयी पीढी,
आन्खों मे हया, चेहरे पर
भारतीयता की अमिट छाप
हमारी सम्रिद्ध संस्कृति मे
बंधी सहमी-सहमी सी।
प्रकाश रंजन

मिलना हमारा

कुछ बदला-बदला था,
अरसे बाद हमारा मिलना।
तूने देखा भी मुझे या,
इधर-उधर देखते रहे तुम।
शायद बचना चाहते थे
मैने तुम्हारी नजरों को,
खुद केन्द्रित देखा ही नही।
कोशिश की थी जतन भर
की तुम बस घूरने लगो मुझे।
इतना की खुद ही शर्मा जाऊं;
बच से रहे थे तुम या फिर
नही चाहते थे रुसवा करना।
पर मैने महसूस किया था
तुम्हें पूरी-पूरी शिद्दत से,
खुद को, अपने होने को भी।
इतना की मेरी खुद की देहगंध
मेरे नथुनों से टकरायी थी।
अरसे बाद मैने खुद को, और
अपने होने को महसूस किया था।
अर्सा क्या युग कह सकते हो;
२० की भी नही थी तबऔर
आज पूरे २० वर्षों के बाद।
अब लगता है मैने तुम्हे नही
खुद को ही अर्से बाद देखा है।
क्यूंकि अर्से बाद तुम पास थे,
और तुम्हारे होने से मै थी
अपने पूर्णता और अपने
पूरे वजूद के साथ अरसे बाद।
प्रकाश रंजन

प्रिय परबतिया

प्रेरित
प्रिय परबतिया
परसू तुमको अपना दुआरी से आगे मेहमानजी के साथे जाते देखे से कलेजा कुहर गया। वैसे त मेहमानजी बरा भला लोक बुझाते हैं पन तुम तो जानती होगी हमरे दिल का हाल। तुम्हको  रात-दिन टकटकी लगा के देखते हम सियान हूए थे आ जे बावड़ी सीटना सीखे थे। पर जो होनी को मंजूर। जै सियाराम।
        तोहर सादी मे हम जानके दही का मटकूरा उठा लिये थे जे लोक सभ समझे कि इ अपने जोर मे मगन है आ हमर नोर छिपा जाय।
       बियाह से पहिले हम केतना जे तुमको इशारा दिये। एक बार त हम जान के सेन्दुर का किया ओसारे पर छोर दिये थे। केतना बार मरद सिनेमा बला रुभिया तुमसे पियार हो गया सादी करें जे कीने से गाना फुल्ल साउंड मे बजाए। तोहर किरिया हम तुमको एगो चिट्ठीयो फुलवतिया दिया भेजिस थे मर उ मुंहझौंसी अपन मतारी को जा के दे दी थी आ रामपियरवा हमरा केतना हुज्जत केया था। ओकरा जे  लगा के ओकर मेहरारू को हम चिट्ठीया भेजे हैं।
     तुमको भी काहे कुछौ जहें जब नसीबे जरल था। महीस चराते-चराते हम पांचमे मे लटपटा गये आ तुम ऐमे बीए पढ लिये से हम सभ बात मोने मे रख लिए।
     तोहर बडका ननकिरवा आब सीयान हो गया है, टुभलुस-टुभलुस हेलो हाइ करता है, बुझनुक लगता है। उसको देखी के आंखी जुरा जाता है। तोरे अईसन ठोकल नाक है ओकर। आगे तुमसे कहना था कि बच्चा सभ जो हमको मामा-मामा कहता है सो संगी-साथी, दोस महीम सभ हमको चिढाता है। तुम्हरा भाभी (हमर परिवार) भी तुमको देखती है त हमरे से मसखरी करे लगती है।
   अभकी आना त हमर दलान दीस ताक देना हमर कलेजा जुड़ा जाता है।
    परणाम आ शुभ आसीस।
तोहर
पियारे राम।
प्रकाश रंजन

Saturday, 1 April 2017

रेडियो मिर्ची

पहले-पहल जब रेडियो मिर्ची सुना, बड़ा अजीब सा नाम लगा था 'मिर्ची'! "रेडियो रसगुल्ला" या "जलेबी", "इमरती", " कलाकंद" कुछ भी तो रख सकते थे।।
मतलब तब मेरी शादी नही हुयी थी और अनुराधा पौडवाल का जब गाना बजता था, टी सीरिज वाले कहते थे 'अरे आवाज क्या है मिसरी की डली है डली', फिर ये "मिर्ची" ।
अब शादी के इतने सालों बाद आश्चर्य इसका होता है कि दीवानों ने 'रेडियो जहरीली', 'रेडियो फुंकार', 'रेडियो दहाड़', रेडियो हिस्स, रेडियो कानफाडू, रेडियो 'ऐजी कहां हो जी' क्यूं नही बनायी।
कहां हो जी???
पता नही मोबाइल मे घुसल क्या करते रहते हो???
😀😜😬😂🙏🏻