Thursday, 1 August 2019

अगर कहो तो अपने मन की

अगर कहो तो अपने मन की
व्यथा मैं तुम्हें बताऊं
अगर सुनो तुम ध्यान लगाकर
अपनी कथा सुनाऊं।
बचपन से कुछ ऐसा था
अपनों से भी जुड़ ना पाया
होश संभाले जब मैने
खुद को खड़ा अकेला पाया।
लड़कपन की वय मे आकर
मैने भी कुछ दोस्त बनाये
कुछ कमी ऐसी थी मुझमे
सबने इक-इक पीठ दिखाए।
यौवन की दहलीज को लांघा
इक चेहरे ने मुझे हंसाया
अपनी भीनी खुशबू से
उसने मेरे जीवन को महकाया।
रंग सा गया मैं उसके रंग में
अपने सुधबुध चैन गंवाए
कब सोना है, कब है उठना
ये हर दिन वो मुझे बताए।
जीवन मुझसे रूठ गया तब
वह चेहरा भी छुट गया जब
मुझसे बेहतर साथी पाकर
उसने मुझसे हाथ छुड़ाए।
थम सी गयी जिंदगी मेरी
शिकवा क्या मैं करता उससे
अपनी कमियों को कोसता
रहा घिसटता जीवन पथ पर।
अायी फिर एक रात अंधेरी
किस्मत देखो कितनी न्यारी
सजा धजा कर कब्र को सबने
मुझको मौत की नींद सुलाया।
जीवन की ख्वाहिशें लेकिन
दबी सिसकती रह गयी शमिल
अगला जन्म मैं चाहूं ऐसा
बनूं मै सबके आंख का तारा।

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