Thursday, 1 August 2019

फिर से बच्चे बन जाते हैं।

चल कोई जुगत लगाते हैं
फिर से बच्चे बन जाते हैं।
चेहरे पर सजा कर हम
मासूमियत भरी मुस्कान
तल्खियों को विदा कर आते हैं
फिर से बच्चे बन जाते हैं।
चल जीते हैं खुल कर बिंदास
या किसी कोने में छुप कर
अब उम्र को धता बताते हैं
फिर से बच्चे बन जाते हैं।
चल छोड़ते हैं यह अंधी-दौड़
जीवन की भेड़-चाल और
दो रोटी मां के हाथ की खाते हैं
फिर से बच्चे बन जाते हैं।
जीवन के दिन चार, उलझनें बहुत
मांग एक चवन्नी पापा से हम
चल सारे ख्वाब सजा आते हैं
फिर से बच्चे बन जाते हैं।
शहर के सरपट सड़कें छोड़
टेढी पगडंडियों पर फिसलते
चल अपने घर वापिस आते हैं
फिर से बच्चे बन जाते हैं।
भर चुका है इन फिजाओं में
नफरत का जहर ‘शैल”
प्यार के दो गीत गुनगुनाते हैं
चलो हम बच्चे बन जाते हैं।।

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